"घर की खुशबू ही माँ हैं"


 "माँ" कितना खूबसूरत सा अक्षर हैं....
एक ऐसा किरदार जिसे जैसा जहॉ भी ढालो, वो अपने दायित्व से कभी नहीं मुकरती। चाहे जो भी परिस्थति हों मैने कभी माँ को थकते नहीं देखा। 
माँ एक मोम की तरह जो हर परिस्थियों में डटे रहती हैं, और अगर नहीं तो खुद तो पिघल जाती हैं पर बशर्ते पुरे समां को रोशनी से जगमगा कर। 
पूरा घर ही माँ से रौशन है, घर की रौनक माँ हैं, घर की खुशबू ही माँ हैं।
माँ ईश्वर का वो सुन्दर सृजन है जिसे स्वयं ईश्वर भी पूजता हैं। माँ के भी अनेक रूप हैं, इस संसार का भरण-पौषण ही उस आद्यशक्ति माँ के हाथों में हैं। चाहे वो अन्नपूर्णा हो या चाहे माँ गंगा। 
एक माँ का किरदार ही हर घर को जीवंत बनाए रखता हैं। 

कल में जब यह लिख रहा था तब मुझसे मेरे दोस्त ने जिज्ञासा वश पूछा था की अगर माँ कभी अपनों का बुरा कभी नहीं चाहती तो रामायण में कैकई जो राम को सबसे ज्यादा स्नेह करती थीं, उन्होंने वनवास क्यों दिया ?

कैकई ने राजा दशरथ से पहले वचन लिया उसके बाद बोला:- "देहु एक बर भरतहि टीका" 
यानि राम की जगह भरत का राजतिलक होना चाइए, और उसके बाद बोला:- "तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी" अर्थात तपस्वियों के भेष में विशेष उदासीन भाव से राम को 14 वर्ष का वनवास हो जाए। 

पर यह सब सुन राम ने जो कहाँ वही उनको राम बनाता हैं, वह बोले:- "सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी" अर्थात राम बोलते हैं माँ, वो संतान तो बड़भागी हैं जो अपने माता-पिता के वचन का अनुसरण करे। 

क्योंकि राम को यह फर्क नहीं पड़ा की माँ ने क्या बोला और क्यों बोला, वो बस यह जानते थे की माँ ने बोला हैं। भलीभाँति जानते थे की माँ कभी किसी का बुरा नहीं चाहेंगी। 
इसलिए वो यह भी बोलते हैं की :- "जों न जाऊँ वन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा" अगर ऐसे काम के लिए में वन नहीं जाऊँ, तो मूर्खो के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करना।


पर बात माँ की हो रही और यह सब सुन कर माँ कौशल्या के भाव ना जाना तो क्या जाना। 
वह बोलीं :- साजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय, बिधना ऐसी रैन कर भोर कभी न होय ।
बड़े ही वात्सल्य भाव में ईश्वर से कहती हैं की सबको पता है राम सुबह होते ही वन चले जायेंगे, यह नैन रोते-रोते मर जायेंगे इसलिए हे विधाता ! ऐसी रात्रि ला दे जिसकी कभी सुबह ही न हो।
वो आखरी उम्मीद ईश्वर से ही कर सकती थीं, क्योंकि राम रोकने से भी न रुकने वाले थे।
कितनी मर्मस्पर्शी प्रार्थना हैं उस ईश्वर से एक माँ की।

शब्दों का भंडार भी हों तब भी लिखने को कम पढ़ जायेंगे। क्योंकि पहले भी लिखा था मैंने :-
"क्या गीत लिखूँ माँ में तुझ पर,
जिस पर कभी कुछ लिखा जा नहीं सकता,
तेरे गागर को कभी भरा जा नहीं सकता,
क्या गीत लिखूँ माँ में तुझ पर....!!"

कुंवर बैचैन ने बहुत अच्छा लिखा हैं की :-
तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है, कि जैसे याद की खुश्बू किसी हिचकी से आती है।
बदन से तेरे आती है मुझे माँ वही खुश्बू, जो इक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है।
#happymothersday

Comments

Popular posts from this blog

न स्त्रीरत्नसमं रत्नम

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान

कहाँ कहों छवि आपकी, भले विराजे नाथ